तलाश by अभिषेक दलवी (mobi ebook reader .txt) 📖
- Author: अभिषेक दलवी
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" मामा ये सब कौन है और मेरे साथ....." उदयने पूछnे की कोशिश की ।
" उदय ये सब बाते हम सुबह भी कर सकते है अभी तुम थक चुके हो जरा आराम कर लो " मामाने उसका सवाल बीच मे ही रोकते हुए कहाँ।
" प्रदीप इनका सामान ऊपर के कमरे मे रखो और उधर इनके सोने का इंतजाम करो " उस चश्मेवाले इंसान ने उधर खड़े लड़के से कहाँ।
मामा के कहने पर वो लड़का और उसके साथ तीस पैतीस साल का आदमी दोनो झट से गाडी की तरफ गये। गाडी से सामान निकालकर ऊपरी मंजिल की तरफ जाने लगे।
" मेरे साथ आओ उदय " कूछ वक्त बाद कहकर थोडी देर बाद मामा भी सीढियों से ऊपर की तरफ चल पड़े।
उदय भी उनके साथ ऊपर चल पड़ा।
ऊपर एक कमरे के पास आकर मामा रुक गये। अंदर वो दोनो उदय का सामान कोने मे रखकर एक बेड लगाने लगा तो दूसरा अलमारी से कपड़े निकालकर वो खाली करने लगा था। उदय को देखकर वो दोनों बाहर आए। लगभग कमरा तयार हो चुका था शायद किसी और का होगा जो उदय के लिए खाली करवा दिया ।
" उदय ये कमरा तुम्हारा है तुम आराम कर लो सुबह बात करेंगे " मामाने कहाँ।
उदयने भी आगे कुछ नही कहाँ दिन भर की थकान के बाद उसे भी नींद की ज़रूरत थी। उसने अंदर आकर दरवाजा बंद कर लिया। ये पूरा कमरा उसी के लिए था मामा का इंतज़ाम शायद किसी दूसरी जगह किया गया था। कपड़े बदलकर वो बेडपर आकर लेट गया। बेड के दायीं तरफ दीवार मे खिडकी थी जैसी ही उसने खोली एक ठंडी हवा का झोका आ गया। ये घर थोड़े ऊँचाई पर बना था। आस पड़ोस के सारे घर दूर दूर तक बने थे। नीचे जमा हुए लोगों की बोलने की आवाजों के सिवा चारों तरफ शांती का माहौल था।
उदय लेटे लेटे ही आगे क्या करना है ये सोचने लगा। इंश्युरन्स के पैसे आने तक अजितने उसे मुंबई से बाहर रहने के लिए तो कहाँ था। अजित पुलिस केस निपटा देगा इसका उसे पूरा विश्वास था। उसकी सारी हिम्मत अब उस इंशुरन्स के पैसे पर ही टिकी हुई थी। उन पैसों से ही वो अपने कर्ज की रकम चुका सकता था अगर वो कम भी पड़ जाती तो बाकी थोडी बची रकम चुकाने के लिए वक्त भी माँग सकता था। लेकिन अगर इंशुरन्स के पैसे नही मिल तो....
नही नही....उसने अपने मन से ये ख़याल निकाल दिया। वो किसी और बात पर सोचने लगा। थोडी देर पहले जो उसने देखा वो बाते उसे याद आने लगी थी। उसको ये बात अभी तक समझ मे नही आ रही थी। मामा उसे यहाँ किसके पास लेकर आए है और वो सब लोग मामा से ऐसा बर्ताव क्यों कर रहे है जैसे वो उन्हे पहले से ही जानते हो और कई दिनो बाद उनसे मिले हो। ऐसे कई सवाल उसके मन मे घूम रहे थे। उसका दिमाग सोचने के लिए बेताब था लेकिन शरीर साथ दे नही रहा था। थकान की वजह से पलखे भारी होने लगी और कुछ ही पल मे ख्यालों की जगह नींद ने ले ली।
मामा सीढियों से उतरकर नीचे आ गए। उनसे बात कर रहे थे तीनों लोग परिवार के दूसरे लोगों को कूछ बता रहे थे ।शायद मामा के बारे मे कह रहे होंगे। उनके नीचे आते ही
" भैया वो तो ......." चश्मेवाले इंसान ने पूछने की कोशिश की।
वो क्या पूछना चाहते है शायद मामा को अंदाजा था उन्हे बीच मे रोकते मामाने कहना शुरू किया ।
" हाँ वो वही है और उनके हिसाब से मै उनका मामा हूँ। वो मेरे और हमारे रिश्ते के बारे मे कूछ नही जानते और उन्हे पता भी नही चलना चाहिए। ये जिम्मेदारी हम सब की है ।"
" पर कब तक ?? " उसी शख्सने सवाल किया।
" नही पता।
देखते है आगे क्या होता है। " कहकर मामा पीछे मुड़कर ऊपर उनके कमरे मे चले गए।
सूरज की सुनहरी किरणें उदय के चेहरे पर बिछ गई। उन्ही के एहसास से उसकी नींद खुली। एक हल्की सी अंगडाई लेकर वो उठ गया। खिडकी से बाहर की तरफ उसकी नजर गई सारा गाँव जाग चुका था। वो उठकर नीचली मंजिल पर आ गया। मामा और उनके उम्र के वो दो लोग सोफे पर बैठे थे। शायद किसी का इंतजार कर रहे हो। उदय के आने की आहट उस जवान लड़केने सुनी।
" वो आ गए " उसने सबसे कहाँ।
सब लोगो का ध्यान सीढ़ियों की तरफ गया। उदय को देखकर सब खड़े हो गए वैसे ही जैसे रात को मामा के इशारे पर हुए थे।
" उदय घर के पीछे की तरफ जाओ तुम्हारे नहाने का इंतज़ाम किया है बाद मे मै तुम्हारी सबसे मुलाकात कराता हूँ " उदय कुछ बोले इससे पहले ही मामाने कह दिया।
उनको पता था की उदय उनसे सबसे पहले इन सब लोगों के बारे मे ही पूछेगा। मामा के कहने पर बिना कुछ बोले वो घर के पीछली तरफ बने बाथरूम मे नहाने गया। नहाकर जैसे ही वापिस आया मेज पर उसके मनपसंदीता ढोकले तयार थे। वो देखते ही मेज की तरफ बढ़ गया। पर वो सिर्फ अकेला खा रहा था। बाकी कोई भी उसके साथ मेज पर नही बैठा था। उसे लगा बाकी लोगों का ब्रेकफास्ट हो चुका है क्योकि आज उसे उठने मे जरा देर ही हुई थी। ब्रेकफास्ट होने तक ग्यारह बज गए। खाने के बाद मामाने उसे सोफे पर बैठने के लिए कहाँ और घर के सारे सदस्यों की मुलाकात करवाना शुरू किया।
" उदय ये वीरेंद्रनाथ पालीवाल है " उस चश्मेवाले आदमी की तरफ इशारा करते हुए मामाने कहाँ।
" ये प्रदीप इनका बेटा और ये नंदिनी इनकी बहू " तीस पैतीस साल का शख्स और एक औरत की तरफ इशारा करते उन्होंने कहाँ।
" ये रविंद्रनाथ वीरेंद्रनाथ पालीवाल के छोटे भाई और ये उनकी पत्नी सूलोचना " दूसरा वयस्क इंसान जो कल बाल्कनी मे दिखा था और एक वयस्क औरत की तरफ इशारा करते उन्होने कहाँ।
" ये रविंद्रनाथ पालीवाल का बेटा जयेश और ये बेटी गायत्री " उस जवान लड़के और लड़की के बारे मे उन्होंने बताया।
" रवींद्रनाथ पालीवाल यहाँ के सरपंच है इस परिवार की गाँव मे बहुत ज़मीन है और चार दुकान भी है।
मेरी इस परिवार से काफी पुरानी दोस्ती है यहाँ रहकर तुम्हे किसी भी बात की तकलीफ नही होगी जब तक जी चाहे तब तक यहाँ रह सकते हो। "
" मामा आगे के एक दो दिनो मे अजित को फोन करके उधर का हालचाल पूछना होगा केस जितनी जल्दी क्लियर हो जाए उतनी जल्दी हम वापिस लौट सकते है " सोफे से उठकर मामा की तरफ आते हुए उदयने कहाँ।
" उदय वो सब क्लियर होने के लिए वक्त लगेगा तब तक यहाँ ही रुकना पड़ेगा "
" ठीक है .......वैसे भी और कोई चारा भी तो नही है "
" हम लोग बाहर जा रहे है तुम्हे दोपहर के खाने मे क्या चाहिये ये इन लोगों को बता दो ये वैसी तैयारी मे लग जाएँगे "
" नही मामा अभी इतना खाया है वही काफी हो गया अब दोपहर को कुछ खाया नही जाएगा " उदयने पेट पर हाथ घुमाते कहाँ।
" ठीक है तो हम निकलते है " कहकर मामा , रविंद्र पालीवाल और उनका बेटा प्रदीप बाहर की तरफ निकल पड़े उनके पीछे उदय भी बाहर की तरफ आ गया। वो थोडी जल्दी मे थे।
" तो उदय आज क्या करोगे फिर ? " गाडी मे बैठते हुए मामाने पूछा।
" कुछ खास नही थोडा गाँव घूम लूँगा " उदयने कहाँ।
" मगर कैसे गाडी तो हम लेकर जा रहे है। "
" अम्म.....वही समझ नही आ रहा ।"
" आप मेरी बाईक लेकर जा सकते है रुकीए मै अभी चावी लेकर आता हूँ " बाजू मे ही जयेश खड़ा था उसने कहाँ।
" अरे पर तुम्हे किधर जाना हो तो...." उदयने पूछा।
" मै अपना इंतजाम कर लूँगा आप रुकीए मै अभी आता हूँ " कहकर वो चावी लाने अंदर गया।
" ठीक है उदय जादा दूर मत जाना शाम को मिलते है " कहते हुए मामा की गाडी स्टार्ट हो गई और वो निकल पड़े।
उनके जाते ही थोडी देर मे जयेश चावी लेकर आया। उदय के घूमने का इंतज़ाम हो चुका था वो थेंक्स कहकर बाईक मे चावी डालकर चल पड़ा।
गाँव की पक्की सड़क नही थी और वो भी खाली दिख रही थी। बहुत कम लोग यहाँ गाड़ियों का इस्तेमाल किया करते होंगे। दूर से घंटी की आवाज सुनाई दे रही थी। दूर थोड़ी ऊँचाई पर एक मंदिर दिख रहा था ।
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उदयने मंदिर की तरफ गाडी बढा़ई। कुछ ही देर मे मंदिर के पास वो पहुँच भी गया। जैसे ही वो बाइक से उतरा उसके आगे कुछ दूरी से एक गाडी गुजरी। वो मामा की ही गाडी थी। शायद वो अभी अभी इस मंदिर से दर्शन लेकर निकल गए थे। मंदिर ऊँचाई पर था ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर की लंबी लंबी सीढ़ियाँ थी। उदय सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आ गया। धूप बड़ी तेज थी। मंदिर के अंदर आकर छाँव मे उसे थोडी राहत मिली। इतनी ऊँचाई से पूरा गाँव साफ साफ दिख रहा था। मामा की गाडी दूर जाती हुई नजर आ रही थी। उससे थोडी दूर एक साँवला धोती पहना हुआ पंडित खड़ा था वो भी मामा की गाडी की तरफ ही देखा जा रहा था।
" क्या सोच रहे हो पंडितजी " एक आदमी ने उनके पास आकर पूछा।
" अभी पालीवालों के साथ जो आदमी आया था वो भद्रसेन जैसा दिख रहा था " पंडितजीने सोचते हुए कहाँ।
उदय ये बाते सुन रहा था उसको याद आया भद्रसेन ये नाम उसने सुना था ।वीरेंद्रनाथ पालीवालने रात के समय मामा को इसी नाम से पुकारा था। ये शायद मामा के बारे मे ही बाते कर रहे होंगे वो उनकी बाते गौर से सुनने लगा।
" भद्रसेन जैसा नही वो भद्रसेन ही है। रात को ही आया है ।"
वो मामा के बारे मे ही बात कर रहे थे ये उदय समझ गया।
" क्या बात कर रहे हो ये अभी तक जिंदा है ?? " पंडितजी ने पूछा।
" जिंदा है इसीलिए तो हमे दिख रहा है ना पंडितजी अगर मरा होता तो थोडी ना दिखता। " कहकर वो आदमी हँसता हुआ चला गया।
" पालीवालभी कैसे अजीब लोग है। भद्रसेन जिंदा होते हुए भी मूझे बुलाकर हर साल उसका श्राद्ध करवाते थे। " पंडितजी अपने आप से कहते हुए उधर से निकल गए।
उदयने सुन लिया जो उन्होंने कहाँ था। एक तो मामा को ये लोग भद्रसेन क्यों कहते है ये उसको समझ मे नही आ रहा था। ऊपर से पालीवाल मामा का श्राद्ध क्यों करवाते थे। श्राद्ध तो अपने लोगों का किया जाता है। मामा का और इनका ऐसा क्या संबध हो सकता है जो ये लोग उनका श्राद्ध करवाते थे वो भी उनके जिंदा रहते। कूछ गड़बड़ है ये उसे समझ रहा था। उदय सोचते सोचते भगवान की मूर्ती की तरफ बढ़ा। ये शिवमंदिर था सामने शिवलिंग दिख रहा था। उदय दर्शन लेकर वहाँ से अपनी बाईक की तरफ आया। गाँव घूमते घूमते वो गाँव के बाजार मे आ गया। बहुत बड़ा बाजार लगता था आसपास के गाँव के लोग भी खरीदने बेचने यही आते थे। सिंदूर से लेकर चूड़ियों तक सब कुछ यहाँ मिल रहा था। लोगों से उसको पता चला इधर के लकड़ी के खिलौने बहुत कमाल के है काफी सालों पहले लकड़ी से खिलौने बनाने की तरीका इन लोगों ने विकसित किया था ये लोग वही परंपरा आगे बढ़ा रहे थे। पूरा बाजार घूमते घूमते ढाई बज गए। उदय को और घूमना था लेकिन इस जगह का मौसम और इतनी धूप सह पाना उसके लिए मुश्किल हो गया इसीलिए उसने उधर से वापिस लौटने का फैसला किया।
उदय घर की तरफ आ गया। बाईक चलाते चलाते उसका ध्यान पड़ोस के थोडे पुराने दिखनेवाले घर पर गया। उस घर मे से जो वयस्क आदमी रात के समय मामा से मिलने आया था। वो घर के आँगन मे आराम कुर्सी पर पेड़ों की छाव मे बैठा था। उसको देखकर उदयने अपनी बाईक उस घर के तरफ बढा़ई आँगन मे बाईक
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